Monday, February 14, 2011

कशिद का समुद्री किनारा

अपने ही घावों पर नमक छिड़कना | यह इक तरीके से प्रदर्शित होता है मेरी इस सुबह में, जिसने इस बुद्धिजीवी को प्रातः ८ बजे फनसाड के जंगलों का रुख करते, तथा वापसी पर - थका, और जंगलों के पगडंडियों, पत्थरों, कांटेदार झाड़ों के प्रेम मिलन से प्राप्त खरोंचों तथा चीरों से सजा - समुन्दर के ख़ारे पानी में पाया| जंगल से सभ्यता में लौटने के इन चंद घंटों में मैंने अपना मुआयना किया, इक बार भरपूर खुशनुमा उल्टी की (रात की दारू), थोड़ी बहुत तैराकी सीखी (मोहनीश की बदौलत), गेंद से खेला, तथा धूप में अपना शरीर खूब सेंका |

अभी १३०० बजे हैं; हमारा उद्देश्य मुरुड जज़ीरा की दीदार करना है, जिसके उपरान्त हम शाम की आखिरी बस लेकर बम्बई वापसी करेंगे (अगर समय की रजामंदी रही)|

सागर की लहरों का शोर दिल में बस सा गया है| यह लहरें अपने में कितना इतिहास समेत कर रखती होंगी| कशिद की रेत पर कई यादगार लम्हे जुड़ गए हैं|समुन्दर और जंगल साथ ही मिल गए, मेरा नसीब|

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